Wednesday, 11 June 2014

आखिरकार वो दिन आ गया.


आखिरकार वो दिन आ गया. वो अपने प्लैटफ़ॉर्म पर आ गया. गाड़ी में बैठ भी गया. उसका ट्रांसफर होना था. कब से टिकिट कटाकर इस दिन का इंतज़ार कर रहा था! प्लैटफ़ॉर्म वाली भीड़ को देखा – कैसे घूर रहे हैं उसे! बेवकूफ़ हैं सारे के सारे!    

बस जी, यही दिन है, जो इस स्टेशन से उस स्टेशन लेकर जायेगा. ये आखिरी प्लैटफ़ॉर्म एक आखिरी सफ़र फिर यहां कौन मुड़ के आयेगा. चलो, यार निकलते हैं! पर्दे के पीछे जाने क्या-क्या रखा है! डोरी हिलने लगी है. बस अभी खुल जाती है! बड़े बाबू का काम किया है अपन ने, बिना बड़े बाबू के कहे! उनकी पुरानी फ़ाइल देखकर ही अपने आप हिसाब बैठा लिया. अपने खाते में नयी एंट्री देखेंगे तो क्या खुश हो जायेंगे!    

लेकिन एक बात अच्छी नहीं हुई. उसे ख़याल आ गया कि कहीं अगर ट्रेन सही स्टेशन ना लेकर गयी तो? घूम के इस प्लैटफ़ॉर्म पर तो वापस आने से रही! गाड़ी छूटी तो शक़ पुख़्ता हुआ कि ये नींद वैसी नहीं है जैसी रोज़ आया करती है. जिन्होंने उसकी अर्जी बड़े बाबू के आगे लगायी थी उन्होंने अगर कोई नादानी या चालाकी की होगी तो? गलतियां इंसानों से हो भी जाती भी और इंसान जानबूझ कर करते भी हैं. अगर बड़े बाबू ने ही कह दिया कि – बेवकूफ़! मेरी उधारी या लड़ाई मैं ख़ुद सुलट सकता हूं. मेरे काम में तूने टांग अड़ाई ही क्यों? – तो?     

और इस तरह मरने से ठीक पहले उसके मन में ‘अगर’ आ गया! गले की रस्सी ने पोस्टमार्टम में इस बात की गवाही दी है कि इसी सदमे ने उसकी जान ले ली.


- एक कसाब की साइको-कहानी 

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