Friday, 4 July 2014

जुलाई

जुलाई

लायी या बुलायी जा सकती

तो मार्च ख़त्म होते ही मंगवा लेता

या ख़ुद जाकर जंगलों से

एक नयी ताज़ी जुलाई उठा लाता।

धुली धुली नहायी नहायी, जुलाई!

दरवाज़े के बाहर छतरी के स्टैंड में सजा देता

और कॉफ़ी के मग के साथ

खिड़की पर खड़े होकर देखता -

कैसे कभी जुलाई बादलों को हड़काती लाती है

कैसे कभी बादल जुलाई के पीछे-पीछे ख़ुद चले आते हैं।

तुम



बहुत तंगहाल था।
दो वक़्त की मुस्कुराहट के भी लाले थें।
तुम्हारी हंसी सुनी – खन खन खन
ख़ासा अमीर हो गया!


*****


बहारें जितनी भी बाक़ी हैं मेरे हिसाब की
तुम आ जाओ तो सब आ जायें।


*****



रात भर चांदनी तुम्हारी खिड़की पर बैठी रही
चांद तुम्हारे दिख जाने का इंतज़ार करता रहा।


*****


ज़रा ज़िन्दगी से गुज़र रहा था... 
तुम्हें देखा तो जी रुकने को मचल गया!


*****


मेरी कोई ‘आह’ जाकर सांकल छू आयी होगी
दरवाज़े पर रात तुमने दस्तक जो पायी होगी।


*****


स्लेट पर लिख कर सब शिकायतें मिटा देता हूँ 
सिर्फ प्यार है तुम्हारा जिसे पत्थर पर उकेरा है।


*****

वो होता है ना 
आप रात को सोते वक़्त तकिये से कह दें 
कि मुझे सुबह इतनी बजे उठा देना 
तो इस तरह वक़्त पे उठ भी जाते हैं..... 
मैं हर रात अपने तकिये की बगल में 
एक और तकिया रखकर उससे कहता हूँ 
कि सुबह तक तुम्हें ले आये।


*****

याद में तुम्हारी नींद ना भी आये
जागे रहना तो ना यूं दुश्वार हो।

*****

उस ज़िंदगी का वायदा करता हूँ 
जिसमें तुम जब भी 
जिस भी दिशा में उड़ना चाहोगी 
मैं तुम्हारे पंख बन जाउंगा।