“वो पान की दुकान और किराना स्टोर की बीच में जो छोटा सा गेट है ना उसमें घुस जाओ, अन्दर ही निरंजन मास्टर का घर है.” पोस्टमैन को किसी राह चलते ने रस्ता समझाया. बेचारा इतनी देर से इधर-उधर घूम रहा था. ऊपर से कोहरा इतना कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था. आखिरकार, दो दुकानों के बीच पतले से रस्ते के भीतर कहीं बित्ते भर का एक मकान दिखा. गलते लोहे के दरवाज़े पर लगी लकड़ी की नेमप्लेट पर भी दीमक लगी थी. लिखा था - निरंजन सहाय, एम ए हिन्दी, गोल्ड मैडल. खटखटाने पर इकसठ बरस के दुबले पतले शरीर वाले निरंजन बाबू ऐनक साफ़ करते हुए बाहर आये. पोस्टमैन ने लिफ़ाफ़ा थमाया और बिना टाइम बिगाड़े उसी संकरी गली से वापस निकल लिया. इतनी ठंड है और इस घर में तो ज़रा भी धूप नहीं.
अपना पुराना मेहन्दी कलर का शॉल ओढ़े निरंजन बाबू कमरे में आये और लाइट जलाकर बिस्तर पर बैठ गये. देखना तो पड़ेगा ना इतने सालों बाद उन्हें चिट्ठी किसने लिखी है. बिना लाइट के तो इस घर में अखबार भी नहीं पढ़ सकते. उनकी धर्मपत्नी शारदा देवी ने अपनी नाज़ुक-सी आवाज़ में पूछा ‘कौन आया है?’ निरंजन बाबू ऐसे तमतमाये जैसे किसी ने गर्म चिमटा छुआ दिया हो - ‘कौन आयेगा? यहां कोई आता है क्या? हमेशा बेवकूफ़ों जैसी बातें करती है.. डाकिया चिट्ठी देकर गया है.’
शारदा देवी चुपचाप अपनी दमे से फूलती सांसों को माला की तरह जपती रही. इस आदमी से बहस कौन करे. कुछ भी पूछो, बस बिफर पड़ते हैं. कोई काम की बात होगी चिट्ठी में तो आप ही बता देंगे. सत्तावन बरस की बूढ़ी शारदा, किसी गुडिया की तरह पुरानी गुदड़ी में लिपटी रही. सीलन भरे इन कमरों में हड्डियां गलकर कच्ची पड़ती जा रही हैं और सर्दी है कि रोज़ नये रिकॉर्ड तोड़ने पर तुली है. इस बार की जनवरी तो मुई जानलेवा ही हो गयी है.
रसोई में खटर-पटर हुई तो शारदा समझ गयी कि पतिदेव चिट्ठी-विट्ठी छोड़कर चाय बनाने लगे हैं. आंखे क्या खोली जायें, अदरक कूटने अवाज़ साफ़ बता रही है. कुछेक मिनिट हुए कि निरंजन बाबू ने बिस्तर के पास की स्टूल पे चाय के दो कप रखते हुए कहा. ‘चाय रखी है.’ ने शारदा ने जान-बूझकर आश्चर्य जताया, ‘अरे आपने चाय कब बना ली?’ निरंजन बिना जवाब दिये अपने जगह वापस बैठ गये. पांवों को आहिस्ता से समेट कर बिस्तर पर लिया और रज़ाई फैला ली. शारदा भी उठकर बैठ गयी और गर्म कप पर अपनी दियासलाई सी उंगलियां तपाने लगी. सारे मुहल्ले में निरंजन मास्टर के नाम से पहचाने जाने वाले उनके पति की चाय बनाने में भी खास मास्टरी है. शारदा सुड़क-सुड़क घूंट भरने लगी. ऐसे, जैसे अपने हिस्से का बैकुंठ भोग रही हो.
मास्टर जी ने तो अपना कप अभी उठाया ही था कि कुछ याद आ गया. वो चिट्ठी कहां गयी, यही रखी थी तकिये के पास. ये रही. लिफ़ाफ़े में है. निरंजन ने पलंग से सटी दीवार में गड़े आले को टटोलकर पेपरनाइफ़ ढूंढ़ा. केसरिया रंग के लिफ़ाफ़े में सुनहरे वर्क वाला चांदी के अक्षरों से चमचमाता शादी का कार्ड निकला. निरंजन बाबू गणित बैठाने लगे - विशाल संग रेखा? रिश्तेदारी में तो किसी के बच्चे का नाम विशाल या रेखा नहीं है. लिफ़ाफे पर ही देखना पड़ेगा प्रेषक का नाम - मंजू देवी, लखनऊ. अब ये कौन है. कोई भी चीज़ जल्दी से याद ही नहीं आती. शरीर से ज़्यादा तो याद्दाश्त बुढ़ा गयी है. शारदा को याद होगा क्या? नहीं, ये तो मुझसे भी ज़्यादा भुलक्कड़ है. पूछके देखता हूं. ‘लखनऊ से किसी मंजू देवी ने अपने बेटे की शादी का कार्ड भेजा है, तुम्हारी तरफ़ का रिश्ता है ये?’ शारदा देवी ने नाम सुना, गले में अटकी चाय गटकी और तपाक से बोल पड़ी – ‘मेरी तरफ़ का क्यों होगा? मंजू वो ही नहीं है जिसके साथ तुम घर से भागे थें कॉलेज के दिनों में.’
शारदा देवी और निरंजन बाबू की शादी अरैंज्ड थीं, जैसी कि उनके दौर के लगभग सभी लोगों की हुआ करती है. पच्चीस साल के निरंजन को ऐतराज था. लखनऊ यूनिवर्सिटी की एमए क्लास में साथ पढ़ने वाली मंजू से दोस्ती हो गयी थी. दोनों के घरवालों को भनक पड़ने से पहले ही निरंजन ने शादी का प्रस्ताव रख दिया. मंजू को हैरानी हुई कि निरंजन ने अपने आप ही उनके बीच की दोस्ती को प्रेम समझ लिया था. लेकिन ये अच्छा भी लगा कि उसने अपनी बात चार पन्नों की एक कविता के साथ कही थी. मंजू ने हां कह दी.
इधर निरंजन के पिता पंडित श्यामानंद ने अपने इकलौते सुपुत्र की शादी बिरादरी के ही त्रिलोकी दास की बिटिया शारदा से तय कर दी. बाप बेटे में खूब कहा-सुनी हुई. शुरु में एक-आधा घंटा निरंजन दकियानूसी विचारों को कोसता रहा. सब कुछ सुन सुनाकर पंडित जी ने कहा ‘रिश्ता हो गया है. तुम्हारी परछाई भी शारदा से ही शादी करेगी और तुम भी!’ इसकी बाद कई दिन तक निरंजन ने नये ज़माने की दुहाई दी लेकिन शादी की तैयारियां अनवरत चलती रही. मंजू ने सुना तो हंस दी. बोली – ‘कर लो जहां तुम्हारे पिताजी कहें या फिर भगा ले जाओ मुझे!’
नतीजतन, निरंजन ने अपनी शादी से ठीक ग्यारह दिन पहले मंजू के साथ दिल्ली जा बसने की योजना बनायी. दोनों घर से निकले, दिल्ली में चार दिन साथ रहे और पांचवे दिन पंडित श्यामानंद मंजू के पिता गजानन्द प्रसाद के साथ उनके घर आ धमके. मंजू ने पिता को देखते ही निरंजन पर बहलाने-फुसलाने का इल्ज़ाम मंढ़ दिया और अपनी सूटकेस उठाकर लखनऊ के लिये तैयार हो गयी. पंडित जी ने अपने बेटे के बताया – ‘अगले हफ़्ते बारात लेकर त्रिलोकी जी के घर जाना है. देवता आदमी है वो, तुम्हारे करतब के बारे में सुनकर भी शादी की तैयारियां बन्द नहीं की!’
तो इस तरह शारदा संग निरंजन ब्याह सम्पन्न हुआ. दोनों ने मंजू के मुद्दे पर कभी बात नहीं की. असल में शादी के शुरुआती कुछ महिने तो उन्होंने बात ही नहीं की. निरंजन पर खीज सवार थी. शारदा अच्छी बहू साबित होने में जुटी रही. बहुत धीरे धीरे दोनों एक दूसरे के नज़दीक आयें. नज़दीकी बढ़ाने में इस बात ने भी मदद की, कि निरंजन की दादी दिन-रात पोते का मुंह देखने के लिये दोनों को हड़काती रहती. पिता के दखल के बाद निरंजन का भी बस नहीं चला कि अपनी खीज को और घसीटे. पंडित श्यामानंद ने कहा था ‘छः महिने हो गये हैं. अगले एक साल के अन्दर मुझे शारदा की गोद हरी चाहिये!’
वो ज़माना था ही ऐसा. बड़े-बूढ़े जो कह देते थें वही होता था, या करना पड़ता था. इधर निरंजन को एक स्कूल में हिन्दी के मास्टर की नौकरी मिली और उधर शारदा के बेटा हुआ – मनोहर. मनोहर के बाद सविता और सविता के बाद एक और बिटिया, सरोज. छः बरस में तीन बच्चे हो जाने के बाद निरंजन और शारदा की शादीशुदा ज़िन्दगी ने वो रफ़्तार पकड़ी की पता ही नहीं चला कब बालों की सफ़ेदी का स्टेशन आया और कब बुढ़ापे का प्लैटफ़ॉर्म.
आज निरंजन बाबू रिटायर्ड है. तीनों बच्चे भी शादी के बाद अलग-अलग देशों में जा बसें हैं. होली-दिवाली पर फ़ोन आ जाता है. मिलने आने का मौका दो-तीन साल में एक बार ही लगता है. निरंजन और शारदा ने इस सच को स्वीकार कर लिया है कि ज़माने ने मां-बाप को याद करने का रिवाज़ छोड़ दिया है. ऐसे में जिस मंजू को निरंजन बाबू ने आखिरी बार चालीस साल पहले देखा था, उसकी तरफ से न्यौता आना थोड़ा अजीब तो था ही.
तीन दिन तक निरंजन बाबू ख़ुद से बहस में उलझे रहे कि आखिर क्यों मंजू ने उन्हें इतने साल बाद याद किया है. शारदा से नज़रे चुराते रहे कि कहीं उसने भी यही सवाल किया तो क्या कहेंगे. फिर याद आया कि लखनऊ में उनके कॉलेज के दोस्त सुधीर ने कुछ साल पहले बताया था कि मंजू के तो पच्चीस-तीस बरस में कोई औलाद ही नहीं हुई थी.
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ठंड चाहे कितनी ही हो जिन्हें सुबह की सैर की आदत हो, उन्हें अपने इरादों से सर्दी की देवी का श्राप भी नहीं डिगा सकता. गर्मी हो, बरसात हो या इस बार आयी जैसी कड़ाके की जनवरी - निरंजन बाबू का सवेरे साढ़े पांच से पौने सात तक बुद्ध विहार के चक्कर लगाना इधर से उधर नहीं होता था. तन्दुरस्ती और नियम दोनों ही मास्टर साहब के लिये अहम थें. घर के कामों से ही इस उम्र में भी दुरुस्त रहने वाली शारदा देवी को ना तो सेहत की फ़िक्र करने की ज़रुरत थी ना ही उन्होंने निरंजन बाबू जैसी कोई प्रतिज्ञा ली थी. फिर भी सैर पर वो साथ जाती थीं. चुपचाप पति के पीछे चलती रहती. वो कोई फूल तोड़ने लगते तो रुककर ज़रा सांस सम्भाल लेती. वो कबूतरों को ज्वारी डालते तो बैंच पर बैठ जाती.
आज भी दोनों अपने नित्य क्रम के अनुसार बुद्ध विहार के जॉगिंग ट्रैक पर चले जा रहे हैं. शारदा रोज़ की ही तरह मीटर भर पीछे हैं. सुबह सुबह बातचीत करना निरंजन को अखरता है. एक तो चलते भी इतना तेज़ हैं कि शारदा का सारा ध्यान कदम मिलाने में ही लगा रहता है. शुरु-शुर में जब नयी नवेली दुल्हन शारदा ने निरंजन के साथ सैर पर जाने की इच्छा ज़ाहिर की थी तो पति को अचम्भा हुआ था. बोले – ‘तुम क्या करोगी मेरे साथ? मुझे अकेले ही टहलना पसन्द है!’ लेकिन बात फिर पंडित जी पिता तक पहुंची और निरंजन को आदेश हुआ कि चूंकि बहू की इच्छा ग़लत तो है नहीं, सो उसे माना जाये. तब चालीस साल पहले दोनों के साथ घूमने जाने की आदत पड़ी और ये दस्तूर आज तक चल रहा है. तुर्रा ये है कि निरंजन बाबू मन में यही मानते हैं कि वे सैर पर अकेले ही आते हैं. ना कभी पीछे मुड़कर देखना ना शारदा को बराबर आने का मौका देना.
पर आज हुआ ये कि जब कबूतरों को दाना देने की बारी आयी और शारदा चुपचाप अपनी तय बैंच पर जाकर बैठ गयी तो निरंजन बाबू भी पास आकर बैठ गये. ख़ुद ही कहने भी लगे ‘आज ज्वारी घर ही भूल आया. थोड़ा देर यहीं बैठ लेते हैं फिर चलेंगे.’ केसरिया रंग बिखेरता सूरज अब हवा में उजाले की चाबी कसने लगा था. और शारदा बैठी सोच रही थी कि पति ने पिछली दफ़े सैर के वक़्त कब कोई बात की थी.
निरंजन फिर बोले ‘तुम क्या कहती हो? लखनऊ घूम आयें?’ अच्छा तो ये उधेड़बुन चल रही है मास्टर साब के मन में. मंजू देवी की बेटी के ब्याह में जाने की पर्मीशन ले रहे हैं! वाह! ऐसा तो हुआ नहीं पहले कि कोई काम बीवी से पूछकर किया हो.
‘मेरी बात भी सुन लिया कर कभी! क्या सोच रही है? लखनऊ चलना हो तो बता देना, मैं कल अपनी टिकिट करवाने जाउंगा.’ शारदा देवी ने देखा कि पति का अक्खड़पना ब्रेक के बाद फिर लौट आया है. उन्होंने अपना फ़र्ज़ पूरा किया – ‘हां, चल लूंगी.’ निरंजन बाबू ने सुना और कोई जवाब नहीं दिया. शारदा के लिये इसका मतलब था ‘ठीक है!’
पतिदेव खड़े हुए और बिना धर्मपत्नी की ओर एक बार भी देखे अपनी सरपट चाल से घर की ओर रवाना भी हो गये. शारदा ने गहरी सांस ली और उठ खड़ी हुई. आदत के मुताबिक कबूतरों के चौक के सामने बने छोटे से शिव मंदिर की ओर देखकर आंखे बन्द की, मन ही मन अपने सुहाग, बच्चों और बच्चों के घर परिवार के लिये भोलेनाथ से प्रार्थना की. फिर आंखों से ओझल हो रहे निरंजन मास्टर के पीछे धीरे-धीरे घर लौट आयीं. दो दिन के बाद निरंजन बाबू ने चौदह फ़रवरी को लखनऊ में होने वाले विशाल और रेखा के ब्याह के लिये दो टिकिट कटवा लिये.
आज तेरह फ़रवरी है. रात के साढ़े नौ बजे हैं. निरंजन और शारदा की बस लखनऊ को रवाना होने ही वाली है. “फिर वोही थैला ले आयी! तुझे मालूम है मुझे ये चितकबरा सा थैला नहीं सुहाता!” घर से निकलने से लेकर रिक्शे में बैठने और रिक्शे से बस स्टैंड तक मास्टर जी किसी ना किसी बात पर बड़बड़ा ही रहे थें. बस छूट जाने की फ़िक्र से लेकर शारदा की साड़ी के पल्लू के रिक्शे के पहिये में फंस जाने की फ़िक्र के बाद, अब उन्होंने शारदा के थैले पर अपना फ़ोकस सैट किया था. “तेल जमने से कितना चीकट हो गया है, देख ज़रा! अच्छा लगता है चार जनों के बीच में ऐसा थैला लेकर निकलना? भरे बाज़ार मेरी रेड पीटने पर तुली रहती है!” शारदा को मालूम था कि चाहे साईड ए हो या बी, पति की कैसेट से संगीत एक ही निकलना था – राग उलाहना! ये कैसेट चालीस साल पहले जहां से शुरु हुई थी आज तक वहीं अटकी है. “अब जवाब भी मत देना. मैं ही बोलता रहूं बस मूरख के जैसे.. मेरी बातें तो बकवास लगती होंगी. एक कान से सुनी दूसरे से निकाल दी.” मास्टर साब से ने पत्नी जी फिर से ताना मारा तो वो खिड़की से बाहर मौसमी बेचने वाले को देखने लगी. “बाहर ऐसे देख रही है जैसे मुझे जानती ही ना हो.” इस बार शारदा देवी पलटी और बोली “तो और क्या करूं?” “बात ही कर ले. मैं भी तो कर रहा हूं.” “तुम बात कर रहे हो? शिकायत कर रहे हो!” “मेरी शिकायत की कोई कीमत ही नहीं? चिंता करता हूं, इसिलिये शिकायत करता हूं.” “चिंता काहे की? ये तो तुम्हारा रोज़ का टाइमपास है.”
बस का स्टेरिंग घूमा तो निरंजन बाबू का ध्यान शारदा से उलझने से हटकर ड्राईवर पे आ गया. “आराम से चला भई! जम्बो ज़ेट नहीं है!” निरंजन बाबू ने हड़काया तो जवाब क़ंडक्टर की तरफ़ से मिला - “डरो मत बाउजी, ड्राईवर एमए पास है! इमरजेंसी के लिये पैराशूट बन्धरा है सीट के नीचे!” दो-चार लोग हंस दिये. निरंजन बाबू का मन तो हुआ कि कोई करारा जवाब पकड़ा दे लेकिन छोड़ो! कौन मुंह लगे! ये लो, बस चले आधा घंटा नहीं हुआ और शारदा शॉल लपेट कर सो भी गयी. ऐसी सीधी सपाट सीट पर जाने कैसे किसी को इतनी जल्दी नींन्द आ सकती है. निरंजन बाबू ने अपना कम्बल कसकर लपेटा और सोने की कोशिश में कुर्सी पर एडजस्ट होने की कोशिश करने लगे. बस में रात का सफ़र दुख ही देता है.
सुबह हुई, बस लखनऊ पहुंची, दोनों जने उतरे और शादी के घर की ओर जाने वाला टैम्पो ले लिया. यहां से अभी पच्चीस किलोमीटर दूर और जाना है. निरंजन बाबू की की नींद चूंकि बस में पूरी नहीं हुई थी तो वे ऊंघते रहे. तब आंख खुली जब शारदा ने चाय का गिलास आगे किया. “लो चाय पी लो!” निरंजन ने देखा कि टैम्पू अपने स्टैंड पर लग गया है और पत्नी जी पास की स्टॉल से चाय के दो गिलास भी ले आयी हैं. मंजू देवी का घर अब बस यहां से एक आधा किलोमीटर है. एक अटैची और एक छोटा बैग है इसिलिये रिक्शा कर लेते हैं. मास्टर जी ने आवाज़ लगायी. “अरे ओ रिक्शे वाले!” एक दुबला-पतला रिक्शा वाला रुका. “गुलाबगंज चलोगे?” “चलूंगा.” “पैसे कितने लोगे?” “साठ.” “साठ? अच्छा, और थप्पड़ कितने लोगे?” निरंजन बाबू रिक्शे वाले पर चिल्ला पड़े. “ज़्यादा तीन पांच की ज़रुरत नहीं है. नया मत समझ यहां! बीस रुपये ले लेना!” शारदा ने बीच बचाव किया तो रिक्शेवाला तैश में आते आते रुक गया. कहने लगा “अम्मा जी, आप हो इसिलिये हाथ सम्भाल रखा है! वरना लखनऊ में टाइम नहीं लगता चेहरे का नक्शा बदलते.” सौदा तीस रुपये में पटा. पूरे रस्ते निरंजन बाबू मन ही मन, बीवी पर बीच में पड़ने के लिये कुढ़ते रहें, लेकिन रिक्शेवाले की तड़ी के बाद कुछ बोलने का उनका मन नहीं हो रहा था. कुछ देर बाद रिक्शा मंजू देवी के, भरी दोपहर में भक्क रोशनी से झिलमिलाते, तिमंजिला आलीशान बंगले के आगे खड़ा था!
निरंजन बाबू और शारदा कुछ देर के लिये वही खड़े रहे जहां रिक्शे वाला उन्हें छोड़कर गया था. हम सही जगह तो आयें हैं ना! ये मकान है, कोठी है या होटल? सामने सड़क पर दर्जनों गाडियां और साथ की गली में तीन-तीन जनरेटर. “पता तो यही है. चलो अन्दर चलते है.” निरंजन मास्टर ने कहा. नहीं नहीं करते भी उनके स्कूल जितना बड़ा तो होगा ही ये घर!
निरंजन और शारदा आते जाते लोगों को कौतुहल से देखते हुए अन्दर जाने लगे. इतने में ही मेन गेट पर सुधीर मिल गया.
“अरे! निरंजन भी आया है? तुझे भी कार्ड पहुंचा था?”
“हां मिला था, तुझे फ़ोन भी किया था, रॉन्ग नंबर निकला.”
“मेरा नंबर तो तभी बदल गया था जब नये मकान में शिफ़्ट हुआ था. चल आ बैठ.”
कॉलेज के दिनों के दो दोस्त तीस साल बाद मिले हैं. शारदा देवी एक ओर खड़ी हैं. मास्टर साब ने फिर पूछा –
“ये अपनी ही मंजू का घर है ना?”
“हां हां, ये भी है और जो सामने की गली के कोने पर बंगला है ना वो भी है. दोनों मकान श्रीवास्तव जी के ही हैं.”
“श्रीवास्तव जी कौन, मंजू के पति?”
“हां हां, कार्ड पे नाम है ना? बृजनाथ श्रीवास्तव.”
“अच्छा हां देखा था मैंने.. करते क्या है श्रीवास्तव जी?”
“बिज़िनैस है. दो तो फ़ैक्ट्रियां हैं. चार-एक प्रिंटिंग प्रैस है. मेरा बड़ा लड़का मैनेजर है इनकी प्रैस में. फ़ैमिली टर्म है अपना तो. तुझे मंजू ने फ़ोन किया था?”
निरंजन बाबू से कुछ कहते ना बना. जिस मंजू के बारे में उन्हें बाल भर की ख़बर नहीं थी अचानक ही उसका कार्ड पाकर इतनी दूर चले आये हैं. मन हो रहा है उल्टे पांव लौट जाये. कानों में ज़माने की थू थू सुनायी पड़ रही है – मंजू से तो कोई चूक हुई होगी कि न्यौता भेज दिया. तुम कैसे आ गये? दावत उड़ाने या... ये सोच कर कि उम्र के इस पड़ाव पर मंजू अचानक तुम्हें देखने को उतावली हो गयी है? और कहीं, तुम भी तो उतावले नहीं हो, पुराने प्यार से मिलने के लिये? उसका पति बिज़नैस मैन है. जाने कितनी ही कोठियां है उसकी.. तुम्हें मास्टरी ने क्या दिया?
निरंजन का अब ये भी पूछने का मन नहीं है कि पच्चीस-तीस साल बाद मंजू के अचानक औलाद कहां से आ गयी. शारदा ने पति का मिजाज़ भांप लिया. सुधीर से बोली “ये थक गये हैं. पूरी रात का सफ़र था.” सुधीर ने किसी से कहकर दोनों को पास के बंगले में आराम के लिये भेज दिया. मंजू देवी का ये मकान गैस्ट हाउस की तरह ही इस्तेमाल किया जाता है. और भी बाराती-घराती वहां रुके हुए हैं. रज़ाई गद्दों का चकाचक इंतेज़ाम है.
मास्टर साब और धर्मपत्नी को अलग से कमरा दिखाया गया है. लेकिन निरंजन बाबू का मन अब उखड़ा उखड़ा है. “ज़रा देर सो जाइये.” शारदा ने कहा ही था कि बाहर से किसी ने दरवाज़ा खटाखटा दिया. बताया गया कि लंच लग गया है. पास के ही लॉन में मेहमानों के लिये बुफ़े की व्यवस्था है.
“सर में दर्द में मेरे. मैं यही हूं, तू जाके खाले.” मास्टर साब ने कहा. शारदा ने चुपचाप अपने बैग से सैरिडॉन की गोली का पत्ता निकालकर मेज़ पर पानी के गिलास की बगल में रखा और बोली “आप लेट जाइये. मैं आती हूं.”
मास्टर साब एक गोली लेकर सोये और पूरे तीन घंटे बाद उठें. शारदा पास ही है. मेज़ पर खाने से भरी दो थालियां ढंकी हुई रखी हैं. निरंजन बाबू ने भूख के मारे बिना राय मशविरा किये खाना भी शुरु कर दिया. “रोटियां ठंडी हो गयी होंगी! दूसरी मंगवा दूं?” शारदा ने पूछा तो मास्टर साब ने खाते-खाते ना में सर हिलाया. शारदा ने फिर कहा “थोड़ा ही खाना, पांच बज रहे हैं. थोड़ी देर में शादी में पहुंचने के लिये निकलना है. कोई आदमी बताने आया था छः बजे से मेहमानों के लिये गाडियां लग जायेंगी.”
निरंजन बाबू ने खाने की प्लेट नीचे रख दी. एकटक फ़र्श को देख सोचते रहें और फिर कहा, “शादी में जाने का मन नहीं है मेरा. तुम सामान बांधो, हम वापस चलते हैं.”
“इतनी दूर आकर ऐसे ही वापस चल जायेंगे?”
“तुझे बड़ी पड़ी है ब्याह की.. तू जा मैं अकेला लौट जाउंगा.”
“अपने दोस्त सुधीर से तो मिल चुके हो. क्या सोचेगा वो?”
“क्या सोचेगा? जिस आदमी से दस साल से बोलचाल नहीं है, उसके सोचने का मैं क्यों सोचूं?”
निरंजन और शारदा में बहस चल ही रही थी कि कमरे के बाहर से सुधीर की आवाज़ आयी –
“भई निरंजन मास्टर! अन्दर आ जाऊं?”
कहते-कहते सुधीर और उसके साथ तेईस बरस की एक सुकोमल कन्या भीतर आयी.
“लो मिलो! तुम्हरी स्टूडैंट से.. रेखा!” सुधीर ने कहा. रेखा ने झठ से पैर छुयें.
“सर, मैं याद शहर डीएवी में थी, आपकी क्लास में.. रेखा जोशी, टैंथ ए?”
“हां हां.. तुम.. तुम्हारी उपन्यास में रुचि थी ना?” निरंजन बाबू को इस बार याद्दाश्त ने धोखा नहीं दिया.
“हां सर! आपने ही मुझे मोटीवेट किया था! सर.. मेरा भी पहला उपन्यास पब्लिश होने वाला है.”
“अच्छा अच्छा.. बहुत अच्छा है. खुश रहो. तरक्की करो!”
कुछ कडियां अब भी बची हैं. सुधीर ने बताया “रेखा मंजू और बृजनाथ जी की इकलौती बेटी है. दोनों के कोई संतान थी नहीं तो दस साल पहले, अपनी ही रिश्तेदारी से इसे गोद ले लिया.”
“थैंक्यू सर! मेरा इतना मन था कि आप आयें.. स्कूल के रिकॉर्ड्स से सिर्फ आपका पता मिला, नंबर नहीं, वरना मैं ज़रूर फ़ोन करती.”
रेखा अपनी शादी से चन्द घंटों पहले अपने सबसे फ़ैवरेट टीचर से मिलने आयी थी. सजने-संवरने की जल्दी में चटपट भाग छूटी. निरंजन बाबू का जी कुछ हल्का हुआ तो उन्होंने बेवक़्त रवानगी की बात मन से निकाल दी.
शाम को निरंजन और शारदा, विवाह समारोह में पहुंचे. कोई फ़ार्म हाउस था. बाराती समझकर मास्टर जी को भी गुलाब का फूल पकड़ा दिया गया, जिसे उन्होंने अचकचाकर अपने उम्रदराज़ कोट की बाहरी-निचली जेब में छिपा लिया. शारदा को अहसास है कि पति की आंखें कहीं ना कहीं मंजू देवी को ढूंढ़ रही हैं. कुछ देर इधर-उधर टहलने के बाद इंतज़ार ख़त्म हुआ – ज़री की भारी भरकम साड़ी पहने, सोने-चांदी के क्विंटल भर गहनों में लदी हुई थुलथुल मंजू देवी किसी नौकर पर हुक्म चला रही हैं! ये मंजू है? ऐसी हो गयी? अकड़ू सेठानी? ये मेकअप-पुता बुढ़ाया चेहरा मंजू का है? इसे तो शायद पता भी नहीं कि मैं यहां हूं! कैसे नज़रे फेर कर निकल गयी!
निरंजन बाबू पूरी शाम अनमने से रहे. ठीक से खाना नहीं खाया. शारदा से कुछ बोले नहीं. मंजू देवी के सामने भी नहीं पड़े. दूर से ही देखा कि कैसे वो जब-तब नौकरों को थप्पड़िया देती है. कैसे अपने ही मध्यमवर्गीय रिश्तेदारों को देखकर उसकी भौहें चढ़ जाती हैं. कैसे बृजनाथ जी भी मंजू देवी के सामने बात करते वक़्त असहज दिखते हैं. जब वो आंखें तरेरती है तो बेचारे कैसे ज़मीन देखने लगते हैं. मास्टर जी का जी डोल गया. स्टेज पर भी नहीं गये, बस दूर से आशिर्वाद दिया. सुधीर से भी नहीं मिले. लौटते वक़्त जब शारदा ने कहा “कन्यादान?” तो उन्होंने रोशनी से सराबोर फ़ार्म हाउस पर नज़र डालकर कहा– “क्या ज़रुरत है!”
अगली सुबह ठीक पांच बजे मियां-बीवी याद शहर बस स्टैंड पर उतरे. रिक्शेवाले से मास्टर साब ने मोलभाव भी नहीं किया. घर पहुंचकर सामान भीतर रखा और बोले – “मैं टहल कर आता हूं.” शारदा देवी को रात के सफ़र में हल्की सी ख़ांसी हो गयी है. लेकिन वो दरवाज़े को ताला लगाने लगीं.
पौने सात बजे हैं. दोनों बुद्ध विहार की बैंच पर बैठे हैं. निरंजन बाबू खीज रहे हैं, “कहा था तुम रहने दो, सांस फूल गयी है तुम्हारी!”
“सांस निकल भी जाये तो भी तुम्हारा पीछा ना छोडूंगी!”
यकायक निरंजन बाबू का सारा गुस्सा, निराशा, अनमनापन; सब मिट गया. दो पल बाद, नज़रे चुराते हुए बोले - “जानता हूं... चालीस बरस में तुम ही तो हो जिसने साथ निभाया है. मैं लायक नहीं हूं तुम जैसी औरत के!” शारदा देवी को कानों पर यकीन नहीं हुआ! पति देव बहक गये हैं क्या?
सर्दी के कारण निरंजन बाबू ने हाथ कोट की जेब में सरकाया तो लखनवी बारात से बैरंग लौटने की निशानी हाथ आयी। फिर ज़रा सोचकर कहा, “जानती हो कल कौन सा दिन था?” कोट में मिला लाल गुलाब निकलकर शारदा की ओर मुड़ गया - “वलिनटाइन डे था कल.. लो! पकडो!”
शारदा ने चुप्पी के साथ फूल ले लिया. सोचते हुए कि इस आदमी ने आज के पहले बस वरमाला का फूल ही आगे किया था।
“आज साथ मन्दिर चलते हैं.... चलो आओ, हिम्मत करो। इतना आ गयी हो, थोड़ी दूर और चलो!”
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